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राजनैतिक संतों की परंपरा


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इस देश को सबसे ज्यादा नुकसान अगर किसी ने पहुंचाया है तो वे हैं राजनीतिक संत। उनकी संत कहलाने की महत्वाकांक्षा गलत हाथों में सत्ता की बागडोर सौंप देती है।

     गीता में भी कहा गया है और भारतीय मान्यता भी है कि जब-जब धर्म की हानि होती है ईश्वर का अवतार होता है. ईश्वर तो नहीं लेकिन हमने देखा है कि भारत में जब-जब सत्ता निरंकुशता की और बढ़ी है और उसके प्रति जनता का आक्रोश बढ़ा है एक राजनैतिक संत का आगमन हुआ है जिसके पीछे पूरा जन-सैलाब उमड़ पड़ा है. महात्मा गांधी से लेकर अन्ना हजारे तक यह सिलसिला चल रहा है. आजादी के बाद विनोबा भावे, लोकनायक जयप्रकाश नारायण समेत दर्जनों राजनैतिक संत  सामने आ चुके हैं. इनपर आम लोगों की प्रगाढ़ आस्था रहती है लेकिन सत्ता और पद से उन्हें सख्त विरक्ति होती है. अभी तक के अनुभव बताते हैं कि राजनैतिक संतों की यह विरक्ति अंततः उनकी उपलब्धियों पर पानी फेर देती है. महात्मा गांधी के प्रति आम भारतीयों में अपार श्रद्धा थी. उनहोंने आज़ादी की लड़ाई का नेतृत्त्व किया. सत्याग्रह के अमोघ अस्त्र के जरिये आजादी दिलाई लेकिन सत्ता का नेतृत्त्व ऐसे हाथों में सौंप दिया जो जन-आकांक्षाओं की कसौटी पर खरे नहीं उतरे और समाज को जाति, धर्म और क्षेत्र के आधार पर बांटकर वोटों का समीकरण बनाने और सत्ता पर काबिज़ रहने की तिकड़मों में व्यस्त हो गए. गद्दी पर बैठने के बाद उन्होंने गांधी को भी अप्रासंगिक मान लिया और उनके नाम का उपयोग सिर्फ अपने कुरूप चेहरे को ढकने के लिए करने लगे. कुछ सुधारवादी संतों के बाद सत्ता को पलट देने वाले संत लोकनायक जयप्रकाश नारायण आये. उन्होंने भी सत्ता की बागडोर ऐसे लोगों के हाथ में सौंप दी जो जन आकांक्षाओं के अनुरूप शासन नहीं दे सके. जिन्होंने अपनी गतिविधियों से जनता को नाराज कर दिया और सत्ता से बहार हो गए. आज भ्रष्टाचार के आरोपियों में उस आन्दोलन से निकले नेताओं की भी अच्छी-खासी तादाद है. फिर अन्ना हजारे राजनैतिक संतों की इस श्रृंखला में सामने आए. उनके पीछे पूरा देश उमड़ पड़ा. जेपी के पीछे तो युवा वर्ग था अन्ना के पीछे बच्चे, बूढ़े, महिलाएं तक उमड़ पड़ीं. उस समय ऐसा प्रतीत हो रहा था कि उनका आन्दोलन सिर्फ जन-लोकपाल तक सीमित नहीं रहने वाला. यह जन-उभार पूरी व्यवस्था परिवर्तन की निर्णायक जंग का शंखनाद साबित होगी. सत्ता परिवर्तन होगा. एक जनपक्षीय राजनैतिक संस्कृति का आगमन होगा. पूर्व संतों के अनुभवों को देखते हुए अन्ना ने एक सावधानी जरूर बरती कि अपने ईर्द-गिर्द पेशेवर राजनैतिक दलों और नेताओं को नहीं फटकने दिया. लेकिन उनके आंदोलन के गर्भ से निकले अरविंद केजरीवाल. अलग पार्टी बनाई. चुनाव लड़े. दिल्ली के मुख्यमंत्री बने. लेकिन जिस लड़ाई की शुरुआत हुई थी उसे अपनी महत्वाकांक्षाओं की बेदी पर चढ़ा दिया. लगातार विवादों में घिरे रहे. अपने मंत्रियों के दागदार चेहरों को ढकने में परेशान रहे. जनता की उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे. अपनी उटपटांग हरकतों से चर्चा में बने रहे. अन्ना हजारे से अब उनका कोई लेना-देना नहीं रह गया. यदि अन्ना हजारे संत बनने का मोह त्याग सत्ता में भागीदारी करते तो परिदृश्य कुछ और होता. अब वे बेचारे भले आदमी बनकर रह गए हैं.
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--देवेंद्र गौतम 

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